तीसरा दिन 1जनवरी 2017-जैसा कि मैंने यात्रा भाग दो के अंत में बताया कि एक शानदार मेजबानी हमारा जैसलमेर में इंतज़ार कर रही थी और वो मेजबान थे कैप्टन के.वी.सिंह जो कि इस समय जैसलमेर मे ही पोस्टेड है भारतीय सेना मे ।वैसे हमारे अनुज भ्राता है और नरेश की बुआ जी के बेटे है । रात रुकने से लेकर खाने का इंतज़ाम सब उन्होने ही कर रखा था । रात को तो हम खाना खाकर ही उनके पास पहुंचे और थके हुये भी थे तो जाते ही बिस्तर पर पड गये और कप्तान साहब को बोल दिया कि अब जो भी बात होगी सुबह होगी।रात को नींद बहुत अच्छी आयी । खैर सुबह हो गयी और चाय भी आ गयी । अब हमारा आज का प्लान था लोंगेवाला,तनोट माता मंदिर और जैसलमेर ।यही प्रोग्राम कप्तान साहब को भी बता दिया गया चूंकि आज रविवार था इसलिये के.वी.भी हमारे साथ चलने को तैयार हो गये अपनी पत्नी के साथ ।समय कम था और प्लानिंग बहुत बडी थी इसलिये सुबह जल्दी से नहाकर तैयार हो गये खाना भी तैयार था ।फिर क्या था खाना खाया और निकल पडे एक और रोमांचक सफर पे ।
यहाँ से नरेश के.वी. की गाडी में हो लिया और हम चार लोग अपनी गाडी में । जैसलमेर से हम निकल पडे लोंगेवाला जो कि लगभग 110 कि.मी. की दूरी पर है । हालांकि रोड सिंगल है मगर बहुत ही शानदार चूंकि भीड का तो नामो निशा है ही नही तो गाडी भी अपनी पूरी रफ्तार से चल रही थी और ऊपर से पूरी आवाज में गाने भी ।लग रहा था ज़िंदगी है तो बस यही ना कोई फिकर ना कोइ परवाह । बीच बीच में रुककर फोटो भी और नजारे भी। अगर कोई भी जैसलमेर जाता है तो लोंगेवाला तक इस रास्ते से ज़रूर जाये ऐसा मेरा अनुभव है ।
110 कि.मी. कैसे गुजर गया पता ही नही चला लगा मानो अभी अभी जैसलमेर से चले हो और आ गया लोंगेवाला।नयी साल की पहली पहली सुबह थी और घुमक्कडी के हिसाब से साल का पहला स्थल भी । लेकिन यहा पहुंचकर यह महसूस हुआ कि नये साल की शुरुआत इससे अच्छी हो ही नही सकती ।लोंगेवाला एक एसी जगह या यू कहे एक एसा पावन स्थल है जो किसी परिचय का मोहताज नही है।यह वही युध्ध स्थल है जहा सन 1971 भारत के सूरमाओ ने पाकिस्तान की नापाक साजिश को नाकाम किया था।
मैं सलाम करता हू उन भारतीय वीरो को जो अपनी मात्रभूमि के लिये बिना अपनी जान की परवाह किये हुये दुश्मन से लड गये खासकर तब ,जब ये पता हो कि इस लडाई में मौत ही आखिरी विकल्प है क्योंकि दुश्मन की संख्या बहुत थी और हमला तोपो और मोर्टार से यकायक हुआ था । कहना बहुत आसान है लेकिन जब बात जान पर बन आती है तो अच्छे अच्छो के होश उड जाते है । लेकिन अपनी भारत मा की इज्जत के लिये भारतीय शेर मौत से भी लड जाते है यह एक अनूठा उदाहरन है पूरे विश्वसमुदाय केआगे।और यह जज्बा केवल भारतीय शेरो मे ही होता है जिसे पूरा विश्व एक स्वर में स्वीकार करताहै।
यहा पहुंचकर ऐसा अहसास हो रहा था मानो इस मिट्टी में सर रखकर सालो तक उन वीर सपूतो का सजदा करता रहू और इस मिट्टी को माथे से लगाकर अपनेआप को पवित्र कर लू ।मै तहे दिल से जे.पी. दत्ता साहब को शुक्रिया अदा करता हू जिन्होने "बोर्डर" जैसी कालजयी फिल्म बनाकर आने वाली पीढी को भारतीय फौज के अदम्य साहस का परिचय कराया ।अगर आपको इस फिल्म की विस्वसनीयता परखनी है तो एक बार लोंगेवाला जरूर जाये ।जहाँ आपको मेजर कुलदीप सिंह भी दहाडते हुये मह्सूस होंगे और भैरो सिंह भी वहा की मिट्टी में मिले हुये महसूस होंगे ।अगर वहा जाकर आपका रोम रोम खडा नही हुआ तो जो आप कहे हारने को तैयार हू । बस एक लाइन कहना चाहुंगा..
"भारत मा की रख्या को जहा पूरी फौज लडी है रे ,लोंगेवाला की ये धरती तीरथ से बहुत बडी है रे"
वैसे यहा देखने को आपको कुछ खास नही मिलेगा जैसे कि यहा पर" वार मैमोरियल रूम" बना हुआ है । शहीदो की याद में उनके स्मारक बनाये गये है ।भारतीय तिरंगा अनवरत लहरा रहा है। कुछ पाकिस्तानी टैंक है जो भारतीय फौज ने पाकिस्तान से जीते थे । लेकिन महसूस करने के लिये बहुत कुछ है । कि किस तरह एक छोटी सी भारतीय फौज की टुकडी ने पाकिस्तान की पूरी सेना को केवल अपने साहस के दम पर धूल चटा दी । एसी क्या बात थी कि भारतीय रण बांकुरे अपनी मौत से ही लड गये ।ना जाने कितनो की माताओ की कोख सूनी हो गयी ना जाने कितनी सुहागनो के हाथ की मेहंदी भी नही छूट पायी थी ।लेकिन फिर भी अपनी जान न्योछावर कर गये वो अपनी माता के ऊपर "भारत माता के ऊपर" ॥
जय हिंद, जय भारत...
दोपहर हो चुका था और जैसा कि मैंने पहले ही कहा था आज सफर काफी तय करना था ।अब यहा से निकलना था तनोट माता के मंदिर जो कि यहा से लगभग 30 कि. मी. की दूरी पर था और निकल पडे अगले पडाव की ओर । लेकिन रास्ते की खूबसूरती ऐसी थी जो हमें बरबस अपनी ओर खींच रही थी जैसा कि इन फोटो ग्राफ्स में आप देख सकते हो..
इन लम्हो को जीते हुये इन पलो को अपनी यादो मे संजोते हुये हम सभी तनोट की तरफ बढते चले गये और थोडी देर बाद हम तनोटराय पहुंच भी गये ।
कहते है कि 1971 के युध्ध के दौरान पाकिस्तान ने इस मंदिर पर 200 से ज्यादा बम गिराये थे लेकिन एक भी बम मंदिर में नही फटा आज भी कयी सारे जिंदा बम मंदिर में रखे हुये है। और भारतीय सेना यह भी मानती है कि तनोट माता के आशीर्वाद से ही भारत ने वह युध्ध् जीता था।एक जनवरी होने कीवजह से मंदिर में काफी भीड थी लेकिन दर्शन करने में हमे ज्यादा देर नही लगी । सालके पहले दिन माता का आशीर्वाद भी मिल गया तो यात्रा और भी खूबसूरत हो गयी।
माता के दर्शन के बाद अब हमे वापस जैसलमेर लौटना था वापसी रामगढ होते हुये थी । नहीं नहीं शोले वाला रामगढ नहीं राजस्थान वाला रामगढ ।
अंततः हम वापस जैसलमेर पहुंच ही गये और समय हो रहा था शाम के 5 बजे अब हमारा लख्य जल्द से जल्द जैसलमेर का किला और पटवो की हवेली देखने का था क्युकि प्लान के अनुसार हमे सुबह 4बजे जैसलमेर से वापस निकलना था । इसीलिये बिना समय गंवाये हम जैसलमेर के किले में प्रवेश कर गये जिसे सोनार किला भी कहा जाता है । मतलब सोने का किला और जैसलमेर स्वर्ण नगरी कही जाती है । इसका मतलब हमे किले मे जाकर मालुम हुआ किले के ऊपर जाकर देखने पर पूरा जैसलमेर वाकई सोने सा चमकता है । जहा तक भी नजर जाती है एक ही रंग पीला दिखायी देता है ।
किले को देखते देखते ही दिन ढल चुका था और अंधेरा हो गया । अब हमे पटवो की हवेली और देखनी थी और उसके बाद वापस अपने विश्राम स्थल पर ।
रात्रि में सोनार किले का द्रश्य
पटवो की हवेली किले से 10 मिन..के पैदल रास्ते पर ही है । बहुत गजब कारीगरी की गयी है हवेलियो को बनाने में । बिल्कुल किले का रूप दिया गया है हवेलियो को।
हवेली देखने के बाद अब पेट ने भी इशारा कर दिया था तो फिर क्या था पानी के पडाको का जायजा लिया । क्युकि भोजन तो कप्तान साहब के बंग्ले पर पहले से ही तैयार था ।
यहा से सीधे कप्तान साहब के बंग्ले पर पहुंच कर भोजन खाया और बिस्तर पर पड ग़ये क्युकि सुबह चार बजे निकलना भी था ।आगे का विवरण अगले और अंतिम भाग में......